

“द कश्मीर फाइल्स” फ़िल्म की लगभग 90 प्रतिशत शूटिंग उत्तराखंड में हुई- के एस चौहान। क्या है कश्मीर का सच…
(मनोज इष्टवाल)
उत्तराखंड फ़िल्म विकास बोर्ड के नोडल अधिकारी के एस चौहान ने एक खुलासा करते हुए कहा है कि बहुचर्चित फ़िल्म “द कश्मीर फाइल्स” की 85 से 90 प्रतिशत शूटिंग पार्ट उत्तराखंड की खूबसूरत हसीन वादियों में फिल्माया गया है। के एस चौहान इस बात से बहुत खुश दिखाई दिए कि जहां यह फ़िल्म कामयाबी के झंडे गाड़ रही है वहीं यह फ़िल्म उत्तराखंड की वादियों घाटियों की सुंदर लोकेशन को भी विश्व पटल तक ले जाने में कामयाब रही है, इसी वजह से समूचे विश्व भर के निर्माता निर्देशक का फ़िल्म निर्माण के फिल्मांकन हेतु उत्तराखंड के प्रति आये दिन रुझान बढ़ रहा है ।

उन्होंने बातचीत के दौरान फ़िल्म के पटकथा लेखक व निर्देशक विवेक अग्निहोत्री की सोच की प्रशंसा करते हुए कहा है कि वे एक बेहद मिलनसार व्यक्ति हैं व उनकी सोच जब सुनहले पर्दे पर उतरी तब अपार खुशी हुई कि उन्होंने एक ऐसी त्रासद्गी को हम सबके समक्ष रखा है जिसके बारे में हम अनभिज्ञ थे। चर्चा के दौरान उन्होंने कहा कि उनकी फिल्म “ताशकंद फाइल्स” पूर्व में बिना प्रचार के कुछ अच्छा व्यवसाय नहीं कर पाई जबकि उसका स्वरूप भी देश प्रेम से ओत प्रोत था, लेकिन इस फ़िल्म पर जैसे ही देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का बख्तव्य आया लोगों ने इसे हाथों-हाथ लिया और सिर्फ फ़िल्म देखी ही नहीं बल्कि इसका सोशल मीडिया में जमकर प्रचार-प्रसार भी किया।

उत्तराखंड फ़िल्म विकास बोर्ड के नोडल अधिकारी के एस चौहान इस बात पर आश्चर्य जताते हुए कहते हैं कि शायद उनके जीवन पहली ऐसी फिल्म है जिसका प्रचार प्रसार स्वयं फ़िल्म देखने के बाद हाल से बाहर निकल रहे लोग स्वयं अपने फेसबुक,ट्विटर, इंस्टाग्राम या व्हाट्सएप को माध्यम बनाकर न कर रहे हों। यह पहली ऐसी फिल्म है जिसके लगभग एक हफ्ते तक कोई भी शो हाउस फुल जा रहे हैं व यह रिकॉर्ड व्यवसाय दर्ज कर रही है।
उन्होंने कहा कि भले ही यह फ़िल्म फ़िल्म इंडस्ट्री के बड़े बजट व वर्तमान के बड़े सितारों से सजी फ़िल्म न हो लेकिन जिस तरह इस फ़िल्म को देखने के लिए पिक्चर हॉल के बाहर भीड़ लग रही है उस से उन्हें ज्यादा खुशी इसलिये भी है कि इस फ़िल्म का ज्यादात्तर भाग उत्तराखंड के देहरादून, मसूरी व टिहरी क्षेत्र में फिल्माया गया है। उन्हें उम्मीद है कि आने वाले समय में उत्तराखण्ड फ़िल्म निर्माताओं के लिए एक मुफीद लोकेशन बनेगी व इस क्षेत्र में यहां के कलाकारों को भी काम करने के सुनहरे अवसर मिलेंगे। उन्होंने कहाँ कि इस फ़िल्म में उत्तराखंड के कुछ बाल कलाकारों ने भी काम किया है, मैं उनके आगामी सुखद भविष्य की कामना करता हूँ।

सूचना एवं लोकसंपर्क विभाग के संयुक्त निदेशक व उत्तराखंड फ़िल्म विकास बोर्ड के नोडल ऑफिसर ने जानकारी साझा करते हुए बताया कि विगत दो बर्ष पूर्व अर्थात 06 दिसम्बर 2020 से लेकर 03 जनवरी 2021 तक “द कश्मीर फाइल्स” की उत्तराखंड में शूटिंग हेतु देहरादून, मसूरी व टिहरी में लगभग एक माह शूट की स्वीकृति दी गयी थी जिसके अनुसार इस दौरान मसूरी गांव, प्रिंस होटल, सेसिल होटल, सिस्टर बाजार लेन, चार दुकान, वेलकम होटल, सवाय होटल, पुस्तकालय चौक, चिक-चॉकलेट रोड़, अलमास गांव, कुफरी, माल रोड, मस्जिद अमानिया व उसका नजदीकी क्षेत्र तथा फारेस्ट रेंज मसूरी, देहरादून गांव, शाहीन बाग, पुरकुल गांव, द ओएसिस, आरा मशीन, लक्कड़मंडी, चांदमारी ग्राउंड, गुच्छूपानी, रॉबर्स केव रोड, बिरसेनी ग्रीन फार्म्स, अल्मास गांव,धनौल्टी व उसके आस-पास के वन क्षेत्र टिहरी में इस फ़िल्म के दृश्यों का फिल्मांकन किया गया है।
क्या बयां करती है यह फ़िल्म।
बहरहाल जहां इस फ़िल्म में सनातन हिन्दू परम्पराओं के प्रति सजगता के साथ बात रखी है वहीं फ़िल्म में राष्ट्र व राष्ट्रवाद के मध्य नजर उस सच को उजागर किया गया है जिसे हम सहिष्णु समाज के लोग दया भाव से नजर अंदाज कर देते हैं।

“जब तक सच जूते पहनता है झूठ दुनिया का चक्कर लगाकर लौट आता है।” फ़िल्म के इस डायलॉग ने वह सच बयां कर दिया जो यकीनन सच का सबसे अंतिम मापदंड कहा जा सकता है। किस तरह एक प्रोफेसर कश्मीरी उन स्कॉलरशिप के छात्रों के मन में जहर भरकर भारतबर्ष के विरुद्ध भड़काकर उन्हें तैयार करने का काम करती है। उसी देश के विरुद्ध जिसके पैसे पर यह छात्र अपना जीवन संवारने के लिए हम सबके टैक्स के पैसों पर पलते हैं। ऐसा ही मंजर एक डेढ़ बर्ष पूर्व जेएनयू में हुए आंदोलन में दिखाई दिया था। जहां ऐसे ही नारे लगाए गए “हमको चाहे आजादी…!” कश्मीर के मसले का हल – अल जिहाद, “जागो जागो सुबह हुई है, रूस ने बाजी हारी है। अब हमारी बारी है। हमको चाहे आजादी।”
हमारा दुर्भाग्य देखिये ऐसे नारे ईजाद करने वाले किसी मुस्लिम समुदाय के नहीं थे बल्कि सब हिन्दू घरों की पैदाइश सन्तानें थी जो अपने को “सो कॉल्ड सेक्युलर” मानते हैं व जिन्हें इस सबके लिए विदेशों से विभिन्न आतंकी संगठनों से फंड व पूर्ववर्ती हमारी सरकार स्कॉलरशिप मिलती रही है।
यहां मैं उन सो कॉल्ड सेकुलरों व हिंदुओं से प्रश्न करना चाहता हूं जो तर्क दे रहे हैं कि 1990 में तो विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री थे व उन्होंने भाजपा गठबंधन के साथ मिलकर केंद्र में सरकार बनाई थी। क्या वे सचमुच इस हिंदुस्तान की ही पैदाइश हैं जो ऐसे तर्क देकर गुमराह कर रहे हैं। क्या उन्हें नहीं पता कि यह घटना 25 नवम्बर 1989 से 18 जनवरी 1990 के बीच की है। जबकि 8 दिसम्बर 1989 में जनता दल व भाजपा गठबंधन की सरकार में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने देश के सातवें प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली।
एक रिपोर्ट के अनुसार कश्मीरी पंडितों पर अत्याचार का ये दौर वर्ष 1985 के बाद ही शुरू हुआ था। 1990 में कश्मीरी पंडितो को कट्टरपंथी संगठनों ने काफिर घोषित कर दिया गया था। ये वही दौर था, जब कश्मीरी पंडितों के घर की पहचान की जा रही थी, ताकि दंगों के समय उन्हें आसानी से निशाना बनाया जा सके। उस समय पुलिस, प्रशासन, जज, डॉक्टर, प्रोफेसर और Civil Servant की नौकरियों में कश्मीर पंडितों की संख्या ज्यादा होती थी. इसलिए सबसे पहले उन्हें निशाना बनाया गया. इसकी शुरूआत वर्ष 1986 से हुई।
वर्ष 1986 में गुलाम मोहम्मद शाह ने अपने जीजा फारुख अब्दुल्ला से सत्ता छीन ली थी और वो जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री बन गए थे। उस समय उन्होंने खुद को सही ठहराने के लिए एक खतरनाक निर्णय लिया और ऐलान किया कि जम्मू के New Civil Secretariat Area में एक पुराने मंदिर को गिराकर, भव्य मस्जिद बनवाई जाएगी। उस समय कश्मीरी पंडितों ने इसका विरोध किया तो दक्षिण कश्मीर और सोपोर में दंगे भड़क गए. इस दौरान कश्मीर पंडितों की हत्याएं की गईं। इन दंगों के बाद ही 12 मार्च 1986 को तत्कालीन राज्यपाल जगमोहन मल्होत्रा ने गुलाम मोहम्मद शाह की सरकार को बर्खास्त कर दिया था, हालांकि इसके बाद भी कश्मीरी पंडितों पर अत्याचार नहीं थमे. 14 सितंबर 1989 को कट्टरपंथी जेहादियों ने पंडित टीका लाल टिक्कू को खुलेआम हत्या कर दी ये कश्मीरी पंडितों को कश्मीर से भगाने के लिए की गई पहली हत्या थी। उस समय कश्मीर में अलग-अलग तरह के नारे लगाए जाते थे। जैसे.. ‘जागो जागो, सुबह हुई, रूस ने बाजी हारी है, हिंद पर लर्जन तारे हैं, अब कश्मीर की बारी है’। तब सोवियत रूस की सेना अफगानिस्तान से वापस जा रही थी, इसलिए मुजाहिद्दीन कह रहे थे कि अफगानिस्तान के बाद अब कश्मीर की बारी है। एक और नारा लगाया जाता था.. ‘हमें पाकिस्तान चाहिए, पंडितों के बगैर, पर उनकी घर की महिलाओं के साथ’। इसके अलावा मस्जिदों से भी एक नारा लगाया जाता था। ‘कश्मीर में रहना होगा तो अल्ला-हू-अकबर कहना होगा’।
टीका लाल टिक्कू की हत्या
टीका लाल टिक्कू की हत्या और इन नारों का कश्मीरी पंडितों में कितना खौफ था, इसका अन्दाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि तब टीका लाल टिक्कू के पुत्र मोहन लाल टिक्कू ने एक स्थानीय अखबार में आतंकवादियों से उन्हें हरिद्वार जाकर अपने पिता की अस्थियां विसर्जित करने देने की अपील की थी। उस समय के अखबार में मोहन लाल की अपील प्रकाशित हुई थी। टीका लाल टिक्कू की हत्या के डेढ़ महीने बाद रिटायर्ड जज नीलकंठ गंजू की भी हत्या कर दी गई थी। क्योंकि उन्होंने आतंकवादी मकबूल भट्ट को मौत की सजा सुनाई थी। इसके बाद उन्हें मार दिया गया और उनकी पत्नी को भी अगवा कर लिया गया। उनकी पत्नी के बारे में आज तक किसी को कुछ पता नहीं चल पाया है। वर्ष 1989 में जुलाई से नवंबर के बीच 70 अपराधी जेल से रिहा किये गये थे। इन्हें क्यों रिहा किया गया था? इसका जवाब उस समय की नेशनल कॉन्फ्रेंस की सरकार ने आज तक नहीं दिया है।
कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति के अनुसार, जनवरी 1990 में घाटी के भीतर 75,343 परिवार थे। 1990 और 1992 के बीच 70,000 से ज्यादा परिवारों ने घाटी को छोड़ दिया। एक अनुमान है कि आतंकियों ने 1990 से 2011 के बीच 399 कश्मीरी पंडितों की हत्या की। पिछले 30 सालों के दौरान घाटी में बमुश्किल 800 हिंदू परिवार बचे हैं।
अब जबकि कई सेक्युलर टाइप के लोग इसे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जोड़कर पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी बाजपेयी के निजी सचिव रहे तत्कालीन राज्यपाल जगमोहन सिंह से जोड़कर मामला उछाल रहे हैं कि यह आरएसएस की देन है तब ऐसे वर्णशंकर हिंदुओं पर हंसे न तो क्या करें। आज भी कश्मीरी पंडित 19 जनवरी 1990 को कश्मीर से अपना “पलायन दिवस” मनाते हैं जबकि जगमोहन सिंह तब तक कश्मीर पहुंच भी नहीं पाए थे। उनकी जॉइनिंग 21 जनवरी 1990 की बताई जाती है। विकीपीडिया ने ऐसे ही किसी सेकुलर लेखक के तथ्य बिना पड़ताल किये दर्ज कर दिए कि कश्मीरी पंडितों का पलायन करवाने में जगमोहन सिंह की भूमिका रही है। इस से इस बात का अंदाजा तो लगाया ही जा सकता है कि भेड़ की खाल में छुपे भेड़िये कोई अन्य नहीं बल्कि इसी देश का अन्न खाये भेड़िये हैं।
कश्मीर की पटकथा भी कुछ ऐसी है, जहां मुस्लिम धर्म के कुछ कट्टरपंथी एक मकसद से आये और कश्मीर की वादियों घाटियों में कत्ले आम मचा कर चले गए। यहां उन्होंने किसी को नहीं बख्शा। जो भी कश्मीरी पंडितों के प्रति सहानुभूति दिखाता उसे ही क्रूर मौत दी गयी। एक शायर “कौल” व उसके पुत्र को देवदार के ऊंचे पेड़ों पर कील ठोक कर जिस तरह ठांगा गया व एक महिला को नग्न कर आरे से चीरा गया तो वह जुल्म की इन्तहा थी। फ़िल्म के अंतिम दृश्य में 24 लोगों को कतार में खड़े कर गोली मारना व अंतिम बच्चे के फ़टी आंखों से दृश्य को निहारना व फिर उसी के माथे पर गोली मारकर उसके दर्द भरे चेहरे पर उभरे भाव दिखाकर दर्शक दीर्घा में बैठे लोगों को सिर पकड़ कर निःशब्द पिन ड्राप साइलेन्स में ले जाती है। सच कहूँ तो वह आंखें फ़िल्म खत्म होने के बाद भी हम सबसे जबाब पूछती नजर आती हैं कि मुझ कैसे उन अबोधों का अपराध क्या है?